सूरदास के 19 अनमोल दोहे
गोरे नंद जसोदा गोरी तू कत स्यामल।
चुटकी दै दै ग्वाल नचावत हंसत सबै मुसुकात॥
चुटकी दै दै ग्वाल नचावत हंसत सबै मुसुकात॥
कहा करौं इहि रिस के मारें खेलन हौं नहिं जात।
पुनि पुनि कहत कौन है माता को है तेरो तात॥
पुनि पुनि कहत कौन है माता को है तेरो तात॥
मैया मोहिं दाऊ बहुत खिझायो।
मो सों कहत मोल को लीन्हों तू जसुमति कब जायो॥
मो सों कहत मोल को लीन्हों तू जसुमति कब जायो॥
तू मोहीं को मारन सीखी दाउहिं कबहुं न खीझै।
मोहन मुख रिस की ये बातैं जसुमति सुनि सुनि रीझै॥
मोहन मुख रिस की ये बातैं जसुमति सुनि सुनि रीझै॥
हौं भइ जाइ अचानक ठाढ़ी कह्यो भवन में कोरी।
रहे छपाइ सकुचि रंचक ह्वै भई सहज मति भोरी॥
रहे छपाइ सकुचि रंचक ह्वै भई सहज मति भोरी॥
मोहि भयो माखन पछितावो रीती देखि कमोरी।
जब गहि बांह कुलाहल कीनी तब गहि चरन निहोरी॥
जब गहि बांह कुलाहल कीनी तब गहि चरन निहोरी॥
कबहुं पलक हरि मूंदि लेत हैं कबहुं अधर फरकावैं।
सोवत जानि मौन ह्वै कै रहि करि करि सैन बतावै॥
सोवत जानि मौन ह्वै कै रहि करि करि सैन बतावै॥
सुनहु कान बलभद्र चबाई जनमत ही को धूत।
सूर स्याम मोहिं गोधन की सौं हौं माता तू पूत॥
सूर स्याम मोहिं गोधन की सौं हौं माता तू पूत॥
जो तुम सुनहु जसोदा गोरी।
नंदनंदन मेरे मंदिर में आजु करन गए चोरी॥
नंदनंदन मेरे मंदिर में आजु करन गए चोरी॥
जसोदा हरि पालनैं झुलावै।
हलरावै दुलरावै मल्हावै जोइ सोइ कछु गावै॥
हलरावै दुलरावै मल्हावै जोइ सोइ कछु गावै॥
लागे लेन नैन जल भरि भरि तब मैं कानि न तोरी।
सूरदास प्रभु देत दिनहिं दिन ऐसियै लरिक सलोरी॥
सूरदास प्रभु देत दिनहिं दिन ऐसियै लरिक सलोरी॥
तुम्हरो कहा चोरि हम लैहैं खेलन चलौ संग मिलि जोरी।
सूरदास प्रभु रसिक सिरोमनि बातनि भुरइ राधिका भोरी॥
सूरदास प्रभु रसिक सिरोमनि बातनि भुरइ राधिका भोरी॥
बूझत स्याम कौन तू गोरी।
कहां रहति काकी है बेटी देखी नहीं कहूं ब्रज खोरी॥
कहां रहति काकी है बेटी देखी नहीं कहूं ब्रज खोरी॥
मेरे लाल को आउ निंदरिया काहें न आनि सुवावै।
तू काहै नहिं बेगहिं आवै तोकौं कान्ह बुलावै॥
तू काहै नहिं बेगहिं आवै तोकौं कान्ह बुलावै॥
इहि अंतर अकुलाइ उठे हरि जसुमति मधुरैं गावै।
जो सुख सूर अमर मुनि दुरलभ सो नंद भामिनि पावै॥
जो सुख सूर अमर मुनि दुरलभ सो नंद भामिनि पावै॥
चारु कपोल लोल लोचन गोरोचन तिलक दिए।
लट लटकनि मनु मत्त मधुप गन मादक मधुहिं पिए॥
लट लटकनि मनु मत्त मधुप गन मादक मधुहिं पिए॥
काहे कों हम ब्रजतन आवतिं खेलति रहहिं आपनी पौरी।
सुनत रहति स्त्रवननि नंद ढोटा करत फिरत माखन दधि चोरी॥
सुनत रहति स्त्रवननि नंद ढोटा करत फिरत माखन दधि चोरी॥
सोभित कर नवनीतलिए।
घुटुरुनि चलत रेनु तन मंडित मुख दधि लेप किए॥
घुटुरुनि चलत रेनु तन मंडित मुख दधि लेप किए॥
कठुला कंठ वज्र केहरि नख राजत रुचिर हिए।
धन्य सूर एकौ पल इहिं सुख का सत कल्प जिए॥
धन्य सूर एकौ पल इहिं सुख का सत कल्प जिए॥
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