बिहारी के 51 अनमोल दोहे
काजर दै नहिं ऐ री सुहागिन।
आँगुरि तो री कटैगी गँड़ासा।।
आँगुरि तो री कटैगी गँड़ासा।।
नहिं पराग नहिं मधुर मधु नहिं विकास यहि काल।
अली कली में ही बिन्ध्यो आगे कौन हवाल।।
अली कली में ही बिन्ध्यो आगे कौन हवाल।।
कर-मुँदरी की आरसी, प्रतिबिम्बित प्यौ पाइ।
परति गाँठि दुरजन हिये, दई नई यह रीति।।
परति गाँठि दुरजन हिये, दई नई यह रीति।।
सतसइया के दोहरा ज्यों नावक के तीर।
देखन में छोटे लगैं घाव करैं गम्भीर।।
देखन में छोटे लगैं घाव करैं गम्भीर।।
है यह आजु बसन्त समौ, सुभरौसो न काहुहि कान्ह के जी कौ
अंध कै गंध बढ़ाय लै जात है, मंजुल मारूत कुंज गली कौ।
कैसेहुँ भोर मुठी मैं पर्यौ, समुझैं रहियौ न छुट्यौ नहिं नीकौ
देखति बेलि उतैं बिगसी, इत हौ बिगस्यौ बन बौलसरी कौं।।
अंध कै गंध बढ़ाय लै जात है, मंजुल मारूत कुंज गली कौ।
कैसेहुँ भोर मुठी मैं पर्यौ, समुझैं रहियौ न छुट्यौ नहिं नीकौ
देखति बेलि उतैं बिगसी, इत हौ बिगस्यौ बन बौलसरी कौं।।
पलनु पीक, अंजुन अधर, धरे महारू भाला।
आज मिले स भली करी, भले बने हौ लाल।।
आज मिले स भली करी, भले बने हौ लाल।।
गोरे मुख पै तिल बन्यो, ताहि करौं परनाम।
मानो चंद बिछाइकै, पौढ़े सालीग्राम।।
मानो चंद बिछाइकै, पौढ़े सालीग्राम।।
मैं ही बौरी विरह बस, कै बौरो सब गाँव।
कहा जानि ये कहत हैं, ससिहिं सीतकर नाँव।।
कहा जानि ये कहत हैं, ससिहिं सीतकर नाँव।।
सुनी पथिक मुँह माह निसि लुवैं चलैं वहि ग्राम।
बिनु पूँछे, बिनु ही कहे, जरति बिचारी बाम।।
बिनु पूँछे, बिनु ही कहे, जरति बिचारी बाम।।
अंग-अंग नग जगमर्गै, दीपसिखा-सी देह।
दियो बढ़ाएँ ही रहै, बढो उजेरो गेह।।
दियो बढ़ाएँ ही रहै, बढो उजेरो गेह।।
जपमाला, छापें, तिलक सरै न एको कामु।
मनु कान्चै नाचै बृथा, सान्चै रान्चै रामु।।
मनु कान्चै नाचै बृथा, सान्चै रान्चै रामु।।
घर घर तुरकिनि हिन्दुनी देतिं असीस सराहि।
पतिनु राति चादर चुरी तैं राखो जयसाहि।।
पतिनु राति चादर चुरी तैं राखो जयसाहि।।
कोटि जतन कोऊ करै, परै न प्रकृतिहिं बीच।
नल बल जल ऊँचो चढ़ै, तऊ नीच को नीच।।
नल बल जल ऊँचो चढ़ै, तऊ नीच को नीच।।
नीकी लागि अनाकनी, फीकी परी गोहारि।
तज्यो मनो तारन बिरद, बारक बारनि तारि।।
तज्यो मनो तारन बिरद, बारक बारनि तारि।।
रूप सुधा-आसव छक्यो, आसव पियत बनै न।
प्यालैं ओठ, प्रिया बदन, रह्मो लगाए नैना।।
प्यालैं ओठ, प्रिया बदन, रह्मो लगाए नैना।।
वे न इहाँ नागर भले जिन आदर तौं आब।
फूल्यो अनफूल्यो भलो गँवई गाँव गुलाब।।
फूल्यो अनफूल्यो भलो गँवई गाँव गुलाब।।
मरी भव बाधा, हरौ, राधा नागति सोय।
जा तनु की झाँई परे, स्याम हरित दुति होय।।
जा तनु की झाँई परे, स्याम हरित दुति होय।।
कब को टेरत दीन ह्वै, होत न स्याम सहाय।
तुम हूँ लागी जगत गुरू, जगनायक जग बाय।।
तुम हूँ लागी जगत गुरू, जगनायक जग बाय।।
पत्रा ही तिथि पाइये, वा घर के चहुँ पास।
नित प्रति पून्यौ ही रहै, आनन-ओप उजास।।
नित प्रति पून्यौ ही रहै, आनन-ओप उजास।।
तर झरसी, ऊपर गरी, कज्जला-जल छिरकाइ।
पिय पाती बिन ही लिख।।
पिय पाती बिन ही लिख।।
सघन कुंज घन, घन तिमिर, आधिक ऍधेरी राति।
तऊ न दुरिहै स्याम यह, दीप-सिखा सी जाति।।
तऊ न दुरिहै स्याम यह, दीप-सिखा सी जाति।।
मोर मुकुट कटि काछनी कर मुरली उर माल।
यहि बानिक मो मन बसौ सदा बिहारीलाल।।
यहि बानिक मो मन बसौ सदा बिहारीलाल।।
माहि सरोवर सौरभ लै, ततकाल खिले जलजातन मैं कै
नीठि चलै जल वास अचै, लपटाइ लता तरू मारग मैं कै।
पोंछत सीतन तैं श्रम स्वेदन, खेद हरै सब राति रमै कै
आवत जाति झरोखन कैं मग, सीतल बात प्रभात समै कै।।
नीठि चलै जल वास अचै, लपटाइ लता तरू मारग मैं कै।
पोंछत सीतन तैं श्रम स्वेदन, खेद हरै सब राति रमै कै
आवत जाति झरोखन कैं मग, सीतल बात प्रभात समै कै।।
उडि गुलाल घूँघर भई तनि रह्यो लाल बितान।
चौरी चारू निकुंजनमें ब्याह फाग सुखदान।।
चौरी चारू निकुंजनमें ब्याह फाग सुखदान।।
बामा भामा कामिनी, कहि बोले प्रानेस।
प्यारी कहत लजात नहीं, पावस चलत बिदेस।।
प्यारी कहत लजात नहीं, पावस चलत बिदेस।।
छला छबीले लाल को, नवल ही सों बात।
चूमति चाहति लाय उर, परिहरति धरति उतारि।।
चूमति चाहति लाय उर, परिहरति धरति उतारि।।
कागद पड़ लिखत न बनत, कहत संदेशु लजात।
कहिहै सबु तेरौ हियो, मेरे हिय की बात।।
कहिहै सबु तेरौ हियो, मेरे हिय की बात।।
मेरी भववाधा हरौ, राधा नागरि सोय।
जा तन की झाँई परे स्याम हरित दुति होय।।
जा तन की झाँई परे स्याम हरित दुति होय।।
फूलनके सिर सेहरा, फाग रंग रँगे बेस।
भाँवरहीमें दौड़ते, लै गति सुलभ सुदेस।।
भाँवरहीमें दौड़ते, लै गति सुलभ सुदेस।।
भीण्यो केसर रंगसूँ लगे अरून पट पीत।
डालै चाँचा चौकमें गहि बहियाँ दोउ मीत।।
डालै चाँचा चौकमें गहि बहियाँ दोउ मीत।।
करि फुलेल को आचमन मीठो कहत सराहि।
रे गंधी मतिमंद तू इतर दिखावत काँहि।।
रे गंधी मतिमंद तू इतर दिखावत काँहि।।
रच्यौ रँगीली रैनमें, होरीके बिच ब्याह।
बनी बिहारन रसमयी रसिक बिहारी नाह।।
बनी बिहारन रसमयी रसिक बिहारी नाह।।
कर लै सूँघि, सराहि कै सबै रहे धरि मौन।
गंधी गंध गुलाब को गँवई गाहक कौन।।
गंधी गंध गुलाब को गँवई गाहक कौन।।
प्रगट भये द्विजराज कुल, सुबस बसे ब्रज आई।
मेरे हरौ कलेस सब केशव केशवराई।।
मेरे हरौ कलेस सब केशव केशवराई।।
चिरजीवौ जोरी जुरै, क्यों न स्नेह गम्भीर।
को घटि ये वृषभानुजा, वे हलधर के बीर।।
को घटि ये वृषभानुजा, वे हलधर के बीर।।
भूषन भार सँभारि है, क्यौं इहि तन सुकुमार।
सूधे पाइ न धर परैं, सोभा ही कैं भार।।
सूधे पाइ न धर परैं, सोभा ही कैं भार।।
इत आवति चलि जाति उन, चली छसातक हाथ।
चढ़ी हिडोरैं सी रहै, लगी उसाँसनु साथ।।
चढ़ी हिडोरैं सी रहै, लगी उसाँसनु साथ।।
मैं समुझ्यो निराधार, यह जग काँच सो।
एकै रूप अपार, प्रतिबिम्बित लखिए तहाँ।।
एकै रूप अपार, प्रतिबिम्बित लखिए तहाँ।।
गोरे मुख पै तिल बन्यो, ताहि करौं परनाम।
मानो चंद बिछाइकै, पौढ़े सालीग्राम।।
मानो चंद बिछाइकै, पौढ़े सालीग्राम।।
इन दुखिया अँखियान कौं, सुख सिरजोई नाहि।
देखत बनै न देखते, बिन देखे अकुलाहि।।
देखत बनै न देखते, बिन देखे अकुलाहि।।
सोनजुही सी जगमगी, अँग-अँग जोवनु जोति।
सुरँग कुसुंभी चूनरी, दुरँगु देहदुति होति।।
सुरँग कुसुंभी चूनरी, दुरँगु देहदुति होति।।
कहति नटति रीझति मिलति खिलति लजि जात।
भरे भौन में होत है, नैनन ही सों बात।।
भरे भौन में होत है, नैनन ही सों बात।।
पत्रा ही तिथी पाइये, वा घर के चहँ पास।
नित प्रति पून्यौ ही रहे, आनन-ओप उजास।।
नित प्रति पून्यौ ही रहे, आनन-ओप उजास।।
नाहिंन ये पावक प्रबल, लूऐं चलति चहूँ पास।
मानों बिरह बसंत के, ग्रीषम लेत उसांस।।
मानों बिरह बसंत के, ग्रीषम लेत उसांस।।
अधर धरत हरि के परत, ओंठ, दीठ, पट जोति।
हरित बाँस की बाँसुरी, इन्द्र धनुष दुति होति।।
हरित बाँस की बाँसुरी, इन्द्र धनुष दुति होति।।
या अनुरागी चित्त की, गति समुझै नहिं कोइ।
ज्यों-ज्यों बूड़ै स्याम रंग, त्यों-त्यों उज्जलु होइ।।
ज्यों-ज्यों बूड़ै स्याम रंग, त्यों-त्यों उज्जलु होइ।।
सोहत ओढें पीट पट, श्याम सलोने गात।
मनो नीलमनी सैल पर आतप परयो प्रभात।।
मनो नीलमनी सैल पर आतप परयो प्रभात।।
कहलाने एकत बसत अहि मयूर, मृग बाघ।
जगतु तपोबन सौ कियो दीरघ दाघ निदाघ।।
जगतु तपोबन सौ कियो दीरघ दाघ निदाघ।।
बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाई,
सौंह करे भौंहनु हंसें दैन करें नटी जाई।।
सौंह करे भौंहनु हंसें दैन करें नटी जाई।।
कहल, नटत, रीझत, मिलत, खिलत, लजियात।
भरे भौन में करत है नैनतु ही सब बात।।
भरे भौन में करत है नैनतु ही सब बात।।
बैठि रहि अति सघन वन, पैठी सदन तन मांह।
देखि दुपहरी जेठ की छाहौ चाहति छांह।।
देखि दुपहरी जेठ की छाहौ चाहति छांह।।
******
No comments:
Post a Comment